क्या पहाड़ी संस्कृति जिंदा रह पाएगी? विलुप्त होती टांकरी लिपि

एक रिपोर्ट के मुताबिक दुनियाभर में करीब 6900 भाषाएं बोली जाती है। जिनमे से 2500 भाषाओं का असिस्तत्व खतरे में है और उसी के साथ पहाड़ी संस्कृति भी। कार्नर टीम उत्तर भारत में पहाड़ी भाषा समेत अन्य भाषाओं के लिखने व पढ़ने के लए टांकरी लिपी का प्रयोग किया जाता था। यह लिपि ब्राह्मी परिवार की लिपि का हिस्सा थी और इसका उदगम कश्मीर में प्रयोग की जाने वाली शारदा लिपि से माना जाता है। समय के साथ साथ यहां के लोगों ने उस लिपि का प्रयोग करना बंद कर दिया।

आज हालत यह है कि प्रदेश में चंद ही लोग ऐसे बचे है जो इस लिपि को जानते है। इनमें से एक है कांगड़ा जिला के हरिकृष्ण मुरारी। इन्हें हिम साहित्य परिषद मंडी की और से पहाड़ी साहित्य सम्मान से पुरूस्कृत किया गया है। इसके अलावा जैमनी अकादमी ने इन्हें आचार्य की मानिंद उपाधि से सम्मानित किया है। हरिकृष्ण मुरारी के अलावा और एक दो लोग ही और होंगे जो इस लिपि को जानते होंगे। यह लिपि लगभग विलुप्त ही हो गई है। न तो लोगों न इसे बचाने का कोई प्रयास किया और न ही सरकार की ओर से कोई दिलचस्पी दिखाई।

टांकरी लिपि का विलुप्त होना बहुत दुर्भाग्यपूर्ण है, लेकिन अच्छी बात यह थी कि हमने पहाड़ी भाषा का प्रयोग करना बंद नहीं किया। प्रदेश के अलग अलग जगहों में पहाड़ी बोलियां बोली जाती रही। यह पहाड़ी बोलियां पिछले कई सालों से हमारी पहाड़ी संस्कृति को चलाती आई और आज भी चलाती आ रही है। लेकिन सवाल यह है कि कब तक यह बोलियां हमारी संस्कृति को संजोए रख सकेगी? ज्यादा से ज्यादा 20 साल या फिर तीस साल। यह सवाल इसलिए मन में आता है क्योंकि हम आने वाली पीढ़ी को यह बोलियां नहीं सिखा रहे है। जैसा कि हमारे बुजुर्ग सालों से पीढ़ी दर पीढ़ी सिखाते आए है। मगर हमने सिखाना बंद कर दिया है। आजकल घरों में बच्चों के पहाड़ी बोलने पर पाबंदी लगा दी गई है। अगर कोई बच्चा पहाड़ी भाषा का प्रयोग करता है तो उस इसके लिए डांट दिया जाता है। क्योंकि हम बच्चों को अंग्रेजी और हिंदी सिखाना चाहते है। आधुनिक दौर में अंग्रेजी और हिंदी भाषा का अधिक महत्व है। इन भाषाओं को सिखाना गलत नहीं है, लेकिन इसके लिए पहाड़ी भाषा का बलिदान कर देना कितना सही है?

एक रिपोर्ट के मुताबिक दुनियाभर में करीब 6900 भाषाएं बोली जाती है। जिनमे से 2500 भाषाओं का असिस्तत्व खतरे में है। 196 भाषाएं लुप्त होने की कगार पर है। इनमें से 170 भाषाएं ऐसी है। जिनकों बोलने वाले लोगों की संख्या 150 के करीब रह गई हैं। जिस तरह से हम पहाड़ी भाषा को अनदेखा कर रहे हैं, तो हो सकता है कि आने वाले 20 सालों बाद इस बोलने वाले लोग भी गिने चुने ही हो।

कहा जाता है कि किसी भी क्षेत्र की संस्कृति उस क्षेत्र की भाषा से चलती है। यानि वह भाषा उस क्षेत्र की संस्कृति की वाहक होती है। अब गौर करने वाली बात यह है कि अगर पहाड़ी भाषा समाप्त हो जाती है तो हमारी संस्कृति का क्या होगा। जिस पर हम अभिमान करते है। क्या भाषा के बिना हमारी पहाड़ी संस्क़ृति जिंदा रह पाएगी ? देव संस्कृति बरकरार रहेगी? हिमाचल में गाए जाने वाले लोकगीत होंगे बीस साल बाद? मान लीजिए अगर कोई लोकगीत गाता भी है तो उसे सुनेगा कौन ? लोक गीतों के बिना लोक नृत्य कैसे जीवित रहेंगे ? यह कुछ ऐसे सवाल है जिन पर गौर करना बहुत जरूरी है। वरना वह दिन भी दूर नहीं जब हम अपनी संस्कृति और पहचान खो देंगे।

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  1. आपकी जानकारी अधूरी है
    टाकरी विलुप्त नहीं हुई है और इसे जानने वाले बहुत से लोग हैं। 80 लोगों को हमने पिछले बैच में सिखाया है, 30 को दूसरे और 20 को तीसरे बैच में। ना टांकरी विलुप्त हुई है ना हम इसे विलुप्त होने देंगे।

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