‘फगुआ’,‘धुलेंडी’,‘दोल’ के संग, होली के भी हैं कई रंग

रंगों के महापर्व होली को सनातनी परंपरा को मानने वाले लोग बड़ी धूमधाम से मना रहे हैं। रंग, खुशी और उमंग से जुड़े इस पावन पर्व पर लोग अपने गिले शिकवे भुलाकर एक-दूसरे से गले मिल रहे हैं। हमें देश के अलग-अलग हिस्सों में होली का अलग स्वरूप देखने को मिलता है। कहीं फूल से तो कहीं रंग और गुलाल से होली खेली जाती है, तो कहीं खुशियों के रंग के साथ वीरता और शूरता का प्रदर्शन भी देखने को मिलता है।

पंचांग के अनुसार रंगों का महापर्व होली हर साल फाल्गुन माह की पूर्णिमा तिथि को मनाया जाता है। पारंपरिक तरीके से फाल्गुन मास की पूर्णिमा की रात को होलिका दहन और उसके दूसरे दिन रंगोत्सव मनाया जाता है।

ब्रज मंडल की होली की शुरुआत फाल्गुन पूर्णिमा से बहुत पहले बसंत पंचमी से ही हो जाती है और यहां पर होली का उत्सव तकरीबन 40 दिनों तक चलता है। ब्रज मंडल में होली के मौके पर हर दिन एक अलग ही स्वरूप देखने को मिलता है. मथुरा-वृंदावन और बरसाना में खेली जाने वाली प्रसिद्ध होली में फूलवाली, लड्डूमार, लट्ठमार और अबीर-गुलाल वाली होली काफी प्रसिद्ध है।

ऐसी मान्यता है कि होली के लिए प्राचीन काल में होलाका शब्द का इस्तेमाल किया जाता था। जिसे अब ‘फगुआ’, ‘धुलेंडी’, ‘दोल’ आदि के नाम से जाना जाता है।

उत्तर भारत सहित देश के कई हिस्सों में रंगों के इस पर्व को होली के नाम से जाना जाता है, तो वहीं पंजाब में इसे होला मोहल्ला और ओडिशा में डोल पूर्णिमा के पर्व के रुप में मनाया जाता है। पंजाब में मनाया जाने वाले होला मोहल्ला में तलवारबाजी, घुड़सवारी जैसे वीरता के प्रदर्शन किए जाते हैं। ओडिशा में डोल पूर्णिमा के पर्व पर भगवान जगन्नाथ की यात्रा निकाली जाती है।

होली का रंगोत्सव मुगलकाल में भी बड़ी धूम-धाम से मनाया जाता था। मुगल काल में इसे ईद-ए-गुलाबी या आब-ए-पाशी कहा जाता था।

होली खेलते समय किसी को रंग लगाते समय अपने रिश्तों की मर्यादा को न भूलें। बच्चों को गाल पर और बड़ों के माथे पर या फिर चरणों पर रंग और गुलाल लगाकर इस पावन पर्व को मनाएं। बड़े बुजुर्गों को हमेशा पीले रंग का गुलाल लगाकर उनका सम्मान करें और भूलकर भी किसी को काला रंग न लगाएं और न ही इस रंग के कपड़े पहनें।

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