क्या जलवायु परिवर्तन की वजह से एप्पल बेल्ट्स भी बदल रही है?

जलवायु परिवर्तन के सेब बागवानी पर पड़ने वाले परिणाम

क्या सिकुड़ते ग्लेशियरों की वजह से एप्पल बेल्ट्स भी बदल रही है? जलवायु परिवर्तन के सेब बागवानी पर पड़ने वाले परिणाम

जलवायु परिवर्तन समूचे विश्व के लिए सबसे अहम चुनौती बन गया है। यदि बीते 30-40 वर्षो की बात की जाए तो इसके कारण विश्व के लगभग प्रत्येक हिस्से में वर्षा और हिमपात में औसतन कमी दर्ज़ की गई है। जलवायु परिवर्तन के कारण कृषि बागवानी संकट के दौर से गुज़र रही है। हिमाचल की बात की जाए तो सेब उत्पादन यहां के सवा लाख परिवारों की आर्थिकी का मुख्य आधार है। मगर जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभावों से यह भी अछूता नहीं रह सका है।

जलवायु परिवर्तन का असर प्रदेश में हो रही सेब बागवानी में साफ तौर पर देखने को मिल रहा है। अपने सुर्ख लाल रंग, मिठास और बेहद रसीलेपन के लिए विश्वविख्यात रॉयल किस्म का हिमाचली सेब धीरे धीरे बागिचों और मंडियों से गायब होने की कगार पर है। कारण है कि जलवायु परिवर्तन की वजह से इस किस्म के सेब के लिए उपयुक्त चिलिंग ऑवर्स पूरे न होने से बागवानों को सही पैदावार नहीं मिल पा रही है। दूसरा मुख्य कारण है कि सिकुड़ते ग्लेशियरों और पीछे की ओर जाती स्नोलाइन की वजह से एप्पल बेल्ट्स भी बदल रही है। कोटगढ जैसे इलाके जहां प्रदेश में सबसे पहले सेब का व्यवसायिक काम शुरू हुआ था आज वहां के बागवान इसके नए बागीचे तैयार करने में असमर्थ साबित हो रहे है। क्योंकि वहां सेब के लिए पर्याप्त ठंडक नहीं मिल पा रही है।

जलवायु परिवर्तन के असर का अंदाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है की जिस लाहौल घाटी में कभी सेब की कल्पना भी नहीं की जा सकती थी आज वहां रॉयल डिलीशियस किस्म का सेब बड़े आराम से उगाया जा रहा है। वहीं जिन जगहों पर सौ साल पहले सेब के बागीचे लगे थे वहां आज या तो प्लम, जापानी फल और अनार की खेती की तैयारियां हो रही है या तो गाला जैसी लो चिलिंग एप्पल वराइटीज के बागीचे तैयार हो रहे हैं।

काबिल ए गौर है कि एक सेब का फल तैयार करने तक पौधा लगभग 70 लीटर पानी का प्रयोग करता है। लेकिन प्रदेश के अधिकतर बागवान सिंचाई के लिए मौसम पर ही आश्रित है। वहीं बीते कुछ वर्षों में सूखे के चलते यह भी संभव नहीं हो पा रहा है। इसके कारण सेब उत्पादन में भारी कमी आई है। साल 2018 की बात करे तो इस बार प्रदेश भर में यह आंकड़ा 2 करोड़ पेटियों को भी पार नहीं कर पाया है। हैरान कर देने वाला तथ्य यह है कि इस वर्ष ज़िला किन्नौर में शिमला ज़िले के मुकाबले औसतन अधिक सेब पैदा किया गया है। राज्य के सेब उत्पादन के इतिहास में शायद ऐसा पहली बार हुआ है।

एक वैज्ञानिक अध्ययन के अनुसार बीते कुछ वर्षों में मॉनसून की अवधि बढ़ रही है और शीतकालीन वर्षा और हिमपात में कमी आई है। साल 2018 में गर्मियों का तापमान अचानक सामान्य से औसतन 2 डिग्री सेल्सियस अधिक बढ़ गया। जिसके कारण सेब अन्य फलों को काफी नुक़सान हुआ था। फलोत्पादन में कमी के बावजूद फलों में उच्च गुणवत्ता न होने से बागवानों को भी उनके उत्पाद के सही दाम नहीं मिले।

यदि ऐसा ही चलता रहा तो यह हमारे प्रदेश में हो रही सेब बागवानी के लिए कदापि ठीक नहीं होगा। खासकर सेब का राजा कहलाने वाला रॉयल किस्म का सेब अपनी पहचान खो लेगा। सेब की जगह अन्य फल ले लेंगे। हो सकता है सेब बागवानी के खात्मे के साथ ही हमारे प्रदेश में भी कृषि बागवानी की परम्परा दम तोड दें और बिहार और उत्तराखंड की तर्ज पर हमारे छोटे से राज्य के युवा भी रोजगार की तलाश में यहां से पलायन को मजबुर हो जाए।

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